Wednesday, April 9, 2008

झारखंड और नागपुरी फ़िल्म:

झारखंड प्रकृति के आंचल में एक ऐसा प्रदेश है जहां की हवाओं, घटाओं, पर्वत, पानी और मिट्टी में समृद्धि की गाथा लिखी हुई है। यहां की संस्कृति यहां की परंपरा खुले आकाश के नीलवर्ण जैसा पारदर्शी है। ईश्वर ने मुक्त हाथों से इस राज्य को सौगात दिए हैं और ऐसी पृष्ठभूमि में यहां का सौंदर्य यहां के फूल यहां के झरने यहां के गीत अगर फ़िल्मों के माध्यम से बांटी जाय तो सारे लोग बरबस ही इस ओर आकर्षित होंगे ऐसा मैं मानता हूं। कुछ लोगों ने झारखंड प्रदेश में बहुत पहले से फ़िल्म निर्माण का कार्य करते रहे हैं किन्तु उनका कोई प्रमाणिक रिकार्ड उपलब्ध नहीं होने के कारण उनके कार्यों को रेखांकित करना शोध का विषय है। जिन लोगों ने हाल के वर्षों में इस क्षेत्र में कदम रखा उनके कार्यों का लेखा जोखा सरेआम मौजूद है ज़रूरत है इन पर एक दृष्टि डालने की और पूरे आंकड़ों को ईमानदारी से लिपिबद्ध करने की । जॉलीवुड की फ़िल्मी धरातल पर अगर नज़र डालें तो 1988 में दृश्यांतर इंटरनेशनल के बैनर तले बनी एक हिन्दी फ़िल्म ''आक्रांत'' को पहले पड़ाव पर रख सकते हैं। झारखंड की मौलिक समस्याओं पर बनी इस फ़िल्म में सूदखोरी , जंगल क्षरण , मजदूर पलायन को बिनोद कुमार के निर्देशन में चित्रित किया गया था । इसकी शूटिंग राजाडेरा (नेतरहाट) , एवं रांची सहित मुंबई के फ़िल्मसिटी , फेमस स्टूडियो तथा बोरीवली के जंगलों में भी की गई थी । इसके मुख्य कलाकारों में सदाशिव अमरापुरकर , श्रीला मजुमदार , शकीला मज़ीद , सी.एस.दुबे सहित झारखंड के कलाकारों में बलदेव नारायण ठाकुर , विश्वनाथ उरांव , मसूद जामी , तापस चक्रवर्ती , और अन्य थे । डॉ. रामदयाल मुंडा ने इस फ़िल्म में संगीत पक्ष को संभाला था । बकौल निर्देशक इस फ़िल्म को एक मिशन की तरह लिया गया था किन्तु कई कारणों से यह फ़िल्म सिनेमा हॉल के पर्दे तक नहीं पहुंच पाई। 1990 में दूरदर्शन ने इसका प्रीमियर किया और इसका वीडियो रिलीज़ टाइम्स मैगज़ीन ने निकाला था। ''सोना कर नागपुर'' जॉलीवुड में बनने वाली संभवत: पहली नागपुरी फ़िल्म है जिसने न केवल सिनेमाहॉल के पर्दे पर अपने को प्रतिबिंबित किया वरन नागपुरी दर्शकों को गांव और खेतों से निकाल कर सिनेमा हॉल की कुर्सियों और ज़मीन पर बैठने को उद्वेलित भी किया । इसके निर्माता निर्देशक धनंजय नाथ तिवारी के अनुसार उन्होने तो अपने सपनों को साकार किया किन्तु तकनीकी पहलुओं की अल्प जानकारी के कारण इस फ़िल्म को अधिक धारदार नहीं बना सके । मां छिन्नमस्तिके प्रोडक्षन के बैनर तले बनने वाली इस फ़िल्म में पुरूषोत्तम तिवारी, सोसन बाड़ा, पुष्पा कुल्लु, मुकुन्द नायक, धनंजयनाथ तिवारी सहित अन्य सभी कलाकार झारखंड के ही थे । इसके बाद जॉलीवुड में एक और नागपुरी फ़िल्म ने जन्म लिया ''प्रीत''। पहले से स्थापित सालेम म्युज़िक ग्रुप का एक नागपुरी ऑडियो कैसेट रांची और आसपास के इलाके में धूम मचा रखा था । इस ऑडियो कैसेट की पूरी परिकल्पना सालेम ग्रुप की ही थी । इस ऑडियो कैसेट की सफलता के बाद एक योजना के अंतर्गत सोना कर नागपुर की तर्ज पर ही इस फ़िल्म को 16 मिमी कैमरे से शूट किया गया किन्तु लचर कथानक और निर्देशकीय कमजोरियों के कारण यह फ़िल्म फ़्लॉप साबित हुई। जॉलीवुड की फ़िल्मों में अच्छा व्यवसाय करने वाली फ़िल्मों में ''सजना अनाड़ी'' का नाम लिया जा सकता है। 1998-99 में बनी इस फ़िल्म की शूटिंग रांची के आसपास चान्हों , रामगढ़ , मैकलुस्कीगंज आदि जगहों पर की गई थी । इसकी सफलता के पीछे हाथ था इसके निर्देशक कलकत्ता के प्रवीर गांगुली का जिसने नागपुरी के साथ थोड़ी आधुनिकता को मिलाया था जिसके कारण इस फ़िल्म को प्रदर्शन के समय हल्का विरोध भी झेलना पड़ा था । इस फ़िल्म की कथानक मज़बूत थी जिसे लिखा था स्वयं इसके निर्माता युगलकिशोर मिश्र ने । इसमें काम करने वाले कलाकारों में एक दो बाहरी कलाकारों के साथ युगलकिशोर मिश्र, सोनी बबीता, शेखर वत्स, जीतेन्द्र वाढेर सहित अन्य सभी कलाकार इसी क्षेत्र के थे । नागपुरी फ़िल्म निर्माण के इस तेज़ रफ्तार में ''गुईया नंबर वन'' भी शामिल हुआ । निर्देशक थे आभाष शर्मा । कुछ बाहरी कुछ भीतरी कलाकारों को लेकर बनने वाली यह फ़िल्म भी कुछ कर नहीं पायी। 2001 से लेकर 2005 तक झारखंड कोई यादगार फ़िल्म बनाने में सफल नहीं हो सका। यहां और इस प्रदेश के बाहर निवास करने वाले लोगों को लगने लगा कि यहां छोटे बजट की नागपुरी फ़िल्में और एलबम बनाकर ही कुछ बिजनेस किया जा सकता है इसलिए छोटे बजट की नागपुरी फ़िल्मों और एलबम का बाजार बनने लगा । झारखंड प्रदेश का प्रथम नागपुरी एलबम बनाने का श्रेय जाता है धनंजय नाथ तिवारी को । ''झांझोरानी'' के नाम से उन्होंने ही पहला नागपुरी एलबम बनाया । इसके बाद इस क्रम में टुअर, सलाम, पूर्णिमा, डोली, माय कर दुलारा, बेदर्दी गुइया, पगला दिवाना, चिंगारी, जख्मी दिल, मितवा परदेशी आदि ढेर सारी फ़िल्में और एलबम बनी लेकिन इनकी हालत रेत की दीवार की तरह ही रह गई । कोई ठोस आधार इन फ़िल्मों ने नहीं बनाया । साथ ही वीडियो पर शूट कर सिनेमा हॉल के पर्दे पर चलाने का प्रयोग उत्साहवर्धक नहीं कहा जा सकता । सभी का हश्र वही हुआ जो कच्चे घड़े की आकृति का होता है । अलबत्ता श्री प्रकाश द्वारा बनाया गया वीडियो वृत चित्र देश विदेश में खूब नाम और प्रशंसा पाया । ''बुध्दा वीप्स एट जादूगोड़ा'' नाम की डॉक्युमेंट्री कई पूर्वी देशों में प्रदर्शित की गई और कई जगहों से सम्मानित भी हुई । प्रायोगिक वीडियो फ़िल्मों में ''वर्ड्स टू से'' भी एक सफल प्रयोग साबित हुआ क्योंकि कम समय कम लागत कम संसाधन कम लोकेशन कम लाइट कम कलाकारों के साथ फ़िल्म बनाने का प्रयोग था यह । प्रो. सुशील अंकन ने संप्रेषण की भाषा के स्थान पर केवल संवेदनाओं के संप्रेषण से ही फ़िल्म का निर्माण किया । झारखंड प्रदेश में बनने वाली इस तरह की प्रायोगिक फ़िल्मों की यह पहली कड़ी है । जॉलीवुड में फ़िल्म निर्माण की असीम संभावनाएं हैं। ज़रूरत है इस क्षेत्र में कुशलता और तकनीक की । आशा जगती है जब नज़र जाती है करीमसीटी कॉलेज जमशेदपुर और संत जेवियर कॉलेज रांची के मास कम्युनिकेशन एंड विडियो प्रोडक्षन विभाग की ओर जहां विद्यार्थी फ़िल्म बनाने की बारीकियों को सीख रहे है समझ रहे हैं। उनके बीच से अगर कोई फिल्म मेकर उभर कर सामने आता है तो विश्वास है कि उस फ़िल्म को निश्चित ही सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक, औद्योगिक एवं राजनैतिक मान्यता मिलेगी जो अभी तक जॉलीवुड के किसी भी फ़िल्म को नहीं मिल सकी है । इस क्षेत्र में फ़िल्म निर्माण को निष्चित रूप से औद्योगिक मान्यता एवं वाणिज्यिक समर्थन मिलेगा ऐसा मेरा विश्वास है ।

ओरेकल की थिंक डाट काम अब हिंदी में भी:

ओरेकल की थिंक डाट काम अब हिंदी में भी:
ओरेकल इंडिया के प्रबंध निदेशक कृष्ण धवन ने शुक्रवार को एक बयान में यह जानकारी देते हुए कहा कि कंपनी को इस वेबसाइट में भारतीय छात्रों की रुचि देखकर प्रसन्नता हुई है। हिंदी पहली ऐसी भारतीय भाषा है, जिसमें यह वेबसाइट उपलब्ध है। उन्होंने बताया कि 2004 में इस वेबसाइट के शुरू होने के बाद केंद्रीय विद्यालय, नवोदय विद्यालय और डीएवी के 1100 स्कूलों के 75 हजार से अधिक छात्र इसका इस्तेमाल करते हैं।

फ्रीलांस करोड़पति: क्या आप भी बनना चाहेंगे ?

अमेरिका में एक बार फिर से मंदी आ रही है और तकनीकी जगत से जुड़े कई लोग नौकरी छोड़कर खुद का उद्यम इस आशा के साथ खड़ा कर रहे हैं कि वे जल्द ही फ्रीलांस आईटी करोड़पति बन जाएंगे। कठिन समय होने के कारण कंपनियों में लागत में कमी लाने पर जोर है जिससे पूर्णकालिक कर्मचारी रखने की जगह फ्रीलांसर से काम लेना पसंद किया जा रहा है।

दिल्ली के पास का उपनगरीय इलाका नोएडा, दोपहर के एक बजे हैं। आईटी आउटसोर्सिंग कंपनी साईनैप्स कम्यूनिकेशंस के ठीक सामने एक पान की दुकान है और उसके बगल में एक मूंगफली बेचने वाला भी बैठा हुआ है। कंपनी के सामने ही एक नाई की दुकान है जहां खुले में ही ग्राहकों की दाढ़ी बनाई जा रही है। लेकिन जैसे ही हम साईनैप्स के अंदर जाते हैं, माहौल बिल्कुल बदल जाता है। दीवार पर प्रशांत क्षेत्र, न्यू यॉर्क, ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन का समय दर्शाने वाली घड़ियां लगी हुई हैं। ऑफिस पूरी तरह से वातानूकूलित है और फर्श चमकदार मार्बल से सजी हुई है। साईनैप्स की शुरुआत 2001 में 26 वर्षीय शमित सिन्हा द्वारा 6 लाख रुपये की पूंजी से की गई थी। सिन्हा ने फ्रीलांस आईटी कंपनी इलैंस डॉट कॉम से पांच कंप्यूटर किराये पर लिए थे। अब साईनैप्स में 200 कर्मचारी काम करते हैं और इसका सालाना कारोबार 20 लाख डॉलर (करीब 8 करोड़ रुपए) तक पहुंच गया है।

आपको 24 साल के राहुल महाजन का उदाहरण बताते हैं जिन्होंने विप्रो की नौकरी छोड़ दी और अब पश्चिमी दिल्ली के जनकपुरी में इलैंस डॉट कॉम के माध्यम से अपनी कंपनी जाइकॉम सॉल्यूशंस शुरू की है। पूंजी के नाम पर उनके पास सिर्फ एक कंप्यूटर और अपना तकनीकी कौशल ही था। महाजन ने बताया, 'जब मैंने अच्छी नौकरी छोड़ दी तो मेरे मां-बाप चिंतित लग रहे थे। मैं अपनी पहली नौकरी में ही 50,000 रुपये महीने का वेतन ले रहा था, लेकिन मैं कुछ और बड़ा करना चाहता था। इसलिए मैं अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर एक उद्यमी बन गया।'

आज महाजन लाखों डॉलर की कमाई कर रहे हैं और पिछले साल सिर्फ इलैंस डॉट कॉम के माध्यम से उन्होंने 6 लाख डॉलर की कमाई की है। महाजन को कई विदेशी ग्राहक मिल चुके हैं और वह पीएचपी, एजेएएक्स, एएसपीडॉटनेट, फ्लैश और वेब 2.0 जैसी टेक्नॉलजी पर काम करने के लिए हर घंटे 20 डॉलर वसूलते हैं।

इलैंस डॉट कॉम आईटी की फ्रीलांसिंग कराने वाला एक प्लेटफॉर्म है और इसके माध्यम से फ्रीलांस काम करने वाले लोगों को और किसी प्रॉजेक्ट को आउटसोर्स करने वाली कंपनियों के साथ जोड़ा जाता है। इलैंस डॉट कॉम या गेटअकोडर डॉट कॉम, गुरु डॉट कॉम, ओडेस्क डॉट कॉम जैसे प्लेटफॉर्म के माध्यम से आप क्रिएटिव लेखन, संपादन, इंटीरियर डिजाइनिंग, किसी पोर्टल या कंप्यूटर एप्लीकेशन के विकास जैसे किसी भी कंप्यूटर जॉब को फ्रीलांसर के तौर पर कर सकते हैं।

ईटी संवाददाता ने इस परिघटना को समझने के लिए अमेरिका के प्रशांत तटीय इलाके में करीब 12,500 किलोमीटर की यात्रा की। उत्तरी कैलिफोर्निया के खूबसूरत पहाड़ों के बीच गंदी सड़कों की जगह अब तराशी हुई कॉन्क्रीट की सड़कें ले चुकी हैं, जिन पर वसंत के आगमन का संकेत देती हुई मेपल की पीली पत्तियां बिखरी हुई थीं। इन सड़कों पर न तो साइकिल मरम्मत की कोई दुकान दिखती है और न ही कोई मूंगफली बेचने वाला। लेकिन दुनिया की सबसे बड़ी टेक्नॉलजी कंपनियों फेसबुक, गूगल, सिमैंटेक, वेरीसाइन, सिलिकॉन ग्राफिक्स, सन माइक्रोसिस्टम्स, अडॉब और इलैंस डॉट कॉम के कार्यालयों के सामने बने बहुमंजिली पार्किंग में बीएमडब्ल्यू, मर्सिडीज और लिनकोंस की एक के ऊपर एक परतें जरूर दिखती हैं।

कई अन्य आईटी सविर्स प्रदाता कंपनियों की तरह इलैंस डॉट कॉम ने भी अपनी शुरुआत उस दौर में की जब डॉट कॉम की लहर ठंडी पड़ रही थी।

इलैंस डॉट कॉम के सीईओ फैबियो रोजेटी ने बताया, ''जब हर कोई सिलिकॉन वैली से भाग कर अमेरिका के पूवीर् तट की ओर जा रहा था, तो मैं पहला ऐसा व्यक्ति था जो पश्चिम की ओर गया। मेरे परिवार, खासकर मेरी मां और पत्नी का मानना था कि मंै पागल हो गया हूं।'' फैबियो ने केपजेमिनी में अपनी नौकरी छोड़कर उद्यमी बनने का फैसला किया। इलैंस डॉट कॉम के सबसे बड़े और सबसे धनी सेवा प्रदाता भारत में ही हैं। कुछ में तो कर्मचारियों की संख्या इलैंस से भी ज्यादा हो गई है, जबकि अमेरिका की डिग डॉट कॉम जैसे कई सेवा प्रदाता भी काफी बड़े हो गए हैं। आज इलैंस हर सप्ताह करीब 10 लाख डॉलर का कारोबार करती है। साल 2007 में कंपनी की आमदनी 4 करोड़ डॉलर को पार कर गई। कंपनी की योजना अगले दो-तीन साल में इसे बढ़ाकर 20 करोड़ डॉलर तक पहुंचाने तथा सूचीबद्घ होने की है। इलैंस वेबपेज डिजाइनिंग जैसे कायोंर् की भी आउटसोर्सिंग करवाती है। समय के भीतर पूरे होने वाले प्रॉजेक्ट के लिए कंपनी 500 डॉलर से लेकर 1,000 डॉलर तक दे सकती है और इसके लिए बोली कभी भी लगाई जा सकती है।

अमेरिका में मंदी को देखते हुए इस प्रकार के फ्रीलांस अवसर काफी बढ़ रहे हैं। छोटे व मध्यम कारोबारी व व्यक्ति भी छोटे कामों जैसे लोगो डिजाइन करने, वेबसाइट बनाने, वेबसाइट या किसी एप्लीकेशन के रखरखाव के लिए इस प्रकार के प्लेटफॉर्म के द्वारा आउटसोर्सिंग को वरीयता दे रही हैं। इसका कारण जानना आसान है। कोई भी बड़ी कंपनी 2,000 डॉलर से 10,000 डॉलर तक के छोटे आउटसोर्सिंग कार्य नहीं करना चाहती। इसके अलावा रुपये की मजबूती की वजह से बड़ी व मध्यम कंपनियों ने अपना मार्जिन बनाए रखने के लिए अपने बिलिंग रेट बढ़ा दिए हैं। बड़े सौदे कम मिलने की वजह से अब कंपनियां नौकरी कम दे रही हैं और वेतन भी घट गया है। डॉट कॉम में मंदी के बाद बरबाद हो चुकी कुछ कंपनियों ने इस तरह के मॉडल अपनाने शुरू कर दिए हैं। साइनैप्स के शमित सिन्हा ने कहा, 'उद्यमी बनाने वाले इस तरह के प्लेटफॉर्म की मदद से बड़े आदमी बनने के लिए तकनीकविदों को थोड़ा धैर्य रखना होगा।'

Source: इकनॉमिक टाइम्स हिंदी 26 Mar 2008, 0110 hrs IST,ईटी

राँची में पले-बढ़े धोनी

रेलवे के अधिकारियों को आज भी वह गलती सालती होगी जब उन्होंने वर्तमान समय में भारतीय क्रिकेट के चमकते सितारे और एकदिवसीय टीम के कप्तान महेंद्रसिंह धोनी का केवल तीन गेंद में आकलन करके उन्हें अपनी टीम के काबिल नहीं समझा नहीं था।

धोनी ने इसका खुलासा करते हुए कहा कि इस घटना का उन पर गहरा असर पड़ा और इससे वह कुछ कर दिखाने के लिए प्रतिबद्ध हुए। धोनी ने 'क्रिकइन्फो' को दिए साक्षात्कार में कहा कि मुझे साल का पता नहीं है लेकिन तब करनैलसिंह स्टेडियम (दिल्ली में रेलवे का मैदान) पर ट्रॉयल था। मैंने कुछ गेंद खेली और विकेटकीपिंग की लेकिन मुझे काबिल नहीं समझा गया।

उन्होंने कहा कि इससे मैं हतोत्साहित नहीं हुआ। बाद में जब मेरा दलीप ट्रॉफी के लिए चयन हुआ तो रेलवे ने मुझसे खेलने के लिए कहा लेकिन मैंने कहा कि नहीं मैं नहीं आ रहा हूँ। हो सकता है कि मैं अशिष्ट था लेकिन इसका मुझ पर गहरा असर पड़ा।

इस विकेटकीपर बल्लेबाज ने कहा कि इस घटना ने वास्तव में मुझे बेहतर प्रदर्शन करने के लिए प्रेरित किया। ट्रॉयल में मुझे नकार दिया गया था। मैं उस स्तर पर पहुँचने के लिए अधिक प्रतिबद्ध हुआ, जहाँ पर आपके प्रदर्शन को सभी आँकते हैं।

धोनी भारतीय क्रिकेट के उन चंद सितारों में शामिल हैं, जो छोटे शहरों से बड़े स्तर तक पहुँचे और झारखंड के इस क्रिकेटर ने भी कहा कि रणजी ट्रॉफी टीम में जगह बनाना उनके लिए बड़ी बात थी।

धोनी ने कहा कि सौभाग्य से हमारे चयनकर्ता ऐसे थे जो युवाओं पर विश्वास करते थे। हमने उस साल अंडर- 19 के लिए क्वालीफाई किया और फाइनल तक पहुँचे और इसके बाद अचानक ही काफी बदलाव आए और पाँच युवा खिलाड़ियों को बिहार रणजी टीम में चुन लिया गया। यह मेरी शुरुआत थी।

धोनी ने स्वीकार किया कि छोटे शहरों के लड़कों के लिए बड़े स्तर पर आना बहुत मुश्किल होता है क्योंकि उन्हें तमाम बाधाओं से पार पाना पड़ता है जिसमें आधारभूत ढाँचा भी शामिल है और इससे उनके खेलने की शैली भी प्रभावित होती है।

उन्होंने कहा कि यदि आप छोटे शहर के हैं जहाँ क्रिकेट का आधारभूत ढाँचा सही नहीं है तो आपको बहुत संघर्ष करना पड़ता है। आपको अभ्यास की सुविधा नहीं मिलती और टर्फ विकेट पर अधिक मैच नहीं खेलते और अपनी टीम में चयन पर भी आपको संघर्ष करना पड़ता है।

धोनी ने कहा कि इसका एक खिलाड़ी की खेल शैली और क्रिकेट के बारे में उसकी सोच पर प्रभाव पड़ता है। एक बात को लेकर उसकी सोच साफ होती है कि वह अच्छा प्रदर्शन करने पर ही टीम में बना रह सकता है।

राँची में पले-बढ़े धोनी को लगता है कि विकेटकीपर होने से उन्हें क्षेत्रीय टीम में जगह बनाने में मदद मिली। उन्होंने कहा कि ऐसे में आपको केवल विकेटकीपरों से प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है और इस तरह अपने क्षेत्र में आपकी केवल चार अन्य खिलाड़ियों से प्रतिस्पर्धा रहती है।

Wednesday, March 26, 2008

राँची विश्वविद्यालय अंगीभूत संस्थानों की सूची

राँची विश्वविद्यालय अंगीभूत संस्थानों की सूची
अब्दुल बारी स्मारक महाविद्यालय, जमशेदपुर
बी एन कॉलेज डाल्टेनगंज
बीडीएसटी महिला महाविद्यालय, घाटशिला
छोटानागपुर विधि महाविद्यालय, जैन मंदिर रोड, रांची
गोसनर महाविद्यालय, क्लब रोडा, रांची
जमशेदपुर कोआपरेटिव महाविद्यालय, जमशेदपुर
जवाहरलाल नेहरू महाविद्यालय, चक्रधरपुर
जमशेदपुर महिला महाविद्यालय, जमशेदपुर
जेकेएस महाविद्यालय, जमशेदपुर
केओ महाविद्यालय, रातू रोड, राँची
करीम सिटी महाविद्यालय, जमशेदपुर
कर्पूरी ठाकुर महाविद्यालय, रांची
लोहिया महाविद्यालय, रांची
लालबहादुर शास्त्री महाविद्यालय, जमशेदपुर
महात्मा गांधी चिकित्सा महाविद्यालय, जमशेदपुर
महेन्द्र प्रसाद महिला महाविद्यालय, घाटशिला
मौलाना आजाद महाविद्यालय, जैन मंदिर रोड, रांची
निर्मला महाविद्यालय, डोरंडा, राँची
पीवीई स्मारक महाविद्यालय, चैनपुर
राजेन्द्र चिकित्सा महाविद्यालय, रांची
राममनोहर लोहिया महाविद्यालय, रांची
बीएनजे महाविद्यालय, सिसाई
राष्ट्रीय प्रौधोगिकी संस्थान, जमशेदपुर
एस के बागे महाविद्यालय, कोलबीरा
एस एन सिन्हा प्रबंधन संस्थान, ध्रुर्वा, रांची
एस पी महाविद्यालय, गढवा
श्यामाप्रसाद मुखर्जी महाविद्यालय, जमशेदपुर
संजय गांधी महाविद्यालय, रांची
सिल्ली महाविद्यालय, सिल्ली
संत अगस्तीन महाविद्यालय, मनोहरपुर
संत जोसफ महाविद्यालय तोरपा
संत पाल महाविद्यालय, बहू बाजारा, रांची
संत जेवियर महाविद्यालय, पुरुलिया रोड राँची
ताना भगत महाविद्यालय, घाघरा
टाटा कालेज, चाईबासा
वर्कर्स कालेज, जमशेदपुर
वाई एस महाविद्यालय, रांची
शिवा कालेज आफे एड्यूकेशन, झारखंड
मास्टर इंस्टीट्यूट आफ मैनेजमेंट ऐंड टेक्नालाजी

झारखंड प्रकृति के आंचल में एक ऐसा प्रदेश है जहां की हवाओं, घटाओं, पर्वत, पानी और मिट्टी में समृद्धि की गाथा लिखी हुई है।

झारखंड प्रकृति के आंचल में एक ऐसा प्रदेश है जहां की हवाओं, घटाओं, पर्वत, पानी और मिट्टी में समृद्धि की गाथा लिखी हुई है। यहां की संस्कृति यहां की परंपरा खुले आकाश के नीलवर्ण जैसा पारदर्शी है। ईश्वर ने मुक्त हाथों से इस राज्य को सौगात दिए हैं और ऐसी पृष्ठभूमि में यहां का सौंदर्य यहां के फूल यहां के झरने यहां के गीत अगर फ़िल्मों के माध्यम से बांटी जाय तो सारे लोग बरबस ही इस ओर आकर्षित होंगे ऐसा मैं मानता हूं। कुछ लोगों ने झारखंड प्रदेश में बहुत पहले से फ़िल्म निर्माण का कार्य करते रहे हैं किन्तु उनका कोई प्रमाणिक रिकार्ड उपलब्ध नहीं होने के कारण उनके कार्यों को रेखांकित करना शोध का विषय है। जिन लोगों ने हाल के वर्षों में इस क्षेत्र में कदम रखा उनके कार्यों का लेखा जोखा सरेआम मौजूद है ज़रूरत है इन पर एक दृष्टि डालने की और पूरे आंकड़ों को ईमानदारी से लिपिबद्ध करने की । जॉलीवुड की फ़िल्मी धरातल पर अगर नज़र डालें तो 1988 में दृश्यांतर इंटरनेशनल के बैनर तले बनी एक हिन्दी फ़िल्म ''आक्रांत'' को पहले पड़ाव पर रख सकते हैं। झारखंड की मौलिक समस्याओं पर बनी इस फ़िल्म में सूदखोरी , जंगल क्षरण , मजदूर पलायन को बिनोद कुमार के निर्देशन में चित्रित किया गया था । इसकी शूटिंग राजाडेरा (नेतरहाट) , एवं रांची सहित मुंबई के फ़िल्मसिटी , फेमस स्टूडियो तथा बोरीवली के जंगलों में भी की गई थी । इसके मुख्य कलाकारों में सदाशिव अमरापुरकर , श्रीला मजुमदार , शकीला मज़ीद , सी.एस.दुबे सहित झारखंड के कलाकारों में बलदेव नारायण ठाकुर , विश्वनाथ उरांव , मसूद जामी , तापस चक्रवर्ती , और अन्य थे । डॉ. रामदयाल मुंडा ने इस फ़िल्म में संगीत पक्ष को संभाला था । बकौल निर्देशक इस फ़िल्म को एक मिशन की तरह लिया गया था किन्तु कई कारणों से यह फ़िल्म सिनेमा हॉल के पर्दे तक नहीं पहुंच पाई। 1990 में दूरदर्शन ने इसका प्रीमियर किया और इसका वीडियो रिलीज़ टाइम्स मैगज़ीन ने निकाला था। ''सोना कर नागपुर'' जॉलीवुड में बनने वाली संभवत: पहली नागपुरी फ़िल्म है जिसने न केवल सिनेमाहॉल के पर्दे पर अपने को प्रतिबिंबित किया वरन नागपुरी दर्शकों को गांव और खेतों से निकाल कर सिनेमा हॉल की कुर्सियों और ज़मीन पर बैठने को उद्वेलित भी किया । इसके निर्माता निर्देशक धनंजय नाथ तिवारी के अनुसार उन्होने तो अपने सपनों को साकार किया किन्तु तकनीकी पहलुओं की अल्प जानकारी के कारण इस फ़िल्म को अधिक धारदार नहीं बना सके । मां छिन्नमस्तिके प्रोडक्षन के बैनर तले बनने वाली इस फ़िल्म में पुरूषोत्तम तिवारी, सोसन बाड़ा, पुष्पा कुल्लु, मुकुन्द नायक, धनंजयनाथ तिवारी सहित अन्य सभी कलाकार झारखंड के ही थे । इसके बाद जॉलीवुड में एक और नागपुरी फ़िल्म ने जन्म लिया ''प्रीत''। पहले से स्थापित सालेम म्युज़िक ग्रुप का एक नागपुरी ऑडियो कैसेट रांची और आसपास के इलाके में धूम मचा रखा था । इस ऑडियो कैसेट की पूरी परिकल्पना सालेम ग्रुप की ही थी । इस ऑडियो कैसेट की सफलता के बाद एक योजना के अंतर्गत सोना कर नागपुर की तर्ज पर ही इस फ़िल्म को 16 मिमी कैमरे से शूट किया गया किन्तु लचर कथानक और निर्देशकीय कमजोरियों के कारण यह फ़िल्म फ़्लॉप साबित हुई। जॉलीवुड की फ़िल्मों में अच्छा व्यवसाय करने वाली फ़िल्मों में ''सजना अनाड़ी'' का नाम लिया जा सकता है। 1998-99 में बनी इस फ़िल्म की शूटिंग रांची के आसपास चान्हों , रामगढ़ , मैकलुस्कीगंज आदि जगहों पर की गई थी । इसकी सफलता के पीछे हाथ था इसके निर्देशक कलकत्ता के प्रवीर गांगुली का जिसने नागपुरी के साथ थोड़ी आधुनिकता को मिलाया था जिसके कारण इस फ़िल्म को प्रदर्शन के समय हल्का विरोध भी झेलना पड़ा था । इस फ़िल्म की कथानक मज़बूत थी जिसे लिखा था स्वयं इसके निर्माता युगलकिशोर मिश्र ने । इसमें काम करने वाले कलाकारों में एक दो बाहरी कलाकारों के साथ युगलकिशोर मिश्र, सोनी बबीता, शेखर वत्स, जीतेन्द्र वाढेर सहित अन्य सभी कलाकार इसी क्षेत्र के थे । नागपुरी फ़िल्म निर्माण के इस तेज़ रफ्तार में ''गुईया नंबर वन'' भी शामिल हुआ । निर्देशक थे आभाष शर्मा । कुछ बाहरी कुछ भीतरी कलाकारों को लेकर बनने वाली यह फ़िल्म भी कुछ कर नहीं पायी। 2001 से लेकर 2005 तक झारखंड कोई यादगार फ़िल्म बनाने में सफल नहीं हो सका। यहां और इस प्रदेश के बाहर निवास करने वाले लोगों को लगने लगा कि यहां छोटे बजट की नागपुरी फ़िल्में और एलबम बनाकर ही कुछ बिजनेस किया जा सकता है इसलिए छोटे बजट की नागपुरी फ़िल्मों और एलबम का बाजार बनने लगा । झारखंड प्रदेश का प्रथम नागपुरी एलबम बनाने का श्रेय जाता है धनंजय नाथ तिवारी को । ''झांझोरानी'' के नाम से उन्होंने ही पहला नागपुरी एलबम बनाया । इसके बाद इस क्रम में टुअर, सलाम, पूर्णिमा, डोली, माय कर दुलारा, बेदर्दी गुइया, पगला दिवाना, चिंगारी, जख्मी दिल, मितवा परदेशी आदि ढेर सारी फ़िल्में और एलबम बनी लेकिन इनकी हालत रेत की दीवार की तरह ही रह गई । कोई ठोस आधार इन फ़िल्मों ने नहीं बनाया । साथ ही वीडियो पर शूट कर सिनेमा हॉल के पर्दे पर चलाने का प्रयोग उत्साहवर्धक नहीं कहा जा सकता । सभी का हश्र वही हुआ जो कच्चे घड़े की आकृति का होता है । अलबत्ता श्री प्रकाश द्वारा बनाया गया वीडियो वृत चित्र देश विदेश में खूब नाम और प्रशंसा पाया । ''बुध्दा वीप्स एट जादूगोड़ा'' नाम की डॉक्युमेंट्री कई पूर्वी देशों में प्रदर्शित की गई और कई जगहों से सम्मानित भी हुई । प्रायोगिक वीडियो फ़िल्मों में ''वर्ड्स टू से'' भी एक सफल प्रयोग साबित हुआ क्योंकि कम समय कम लागत कम संसाधन कम लोकेशन कम लाइट कम कलाकारों के साथ फ़िल्म बनाने का प्रयोग था यह । प्रो. सुशील अंकन ने संप्रेषण की भाषा के स्थान पर केवल संवेदनाओं के संप्रेषण से ही फ़िल्म का निर्माण किया । झारखंड प्रदेश में बनने वाली इस तरह की प्रायोगिक फ़िल्मों की यह पहली कड़ी है । जॉलीवुड में फ़िल्म निर्माण की असीम संभावनाएं हैं। ज़रूरत है इस क्षेत्र में कुशलता और तकनीक की । आशा जगती है जब नज़र जाती है करीमसीटी कॉलेज जमशेदपुर और संत जेवियर कॉलेज रांची के मास कम्युनिकेशन एंड विडियो प्रोडक्षन विभाग की ओर जहां विद्यार्थी फ़िल्म बनाने की बारीकियों को सीख रहे है समझ रहे हैं। उनके बीच से अगर कोई फिल्म मेकर उभर कर सामने आता है तो विश्वास है कि उस फ़िल्म को निश्चित ही सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक, औद्योगिक एवं राजनैतिक मान्यता मिलेगी जो अभी तक जॉलीवुड के किसी भी फ़िल्म को नहीं मिल सकी है । इस क्षेत्र में फ़िल्म निर्माण को निष्चित रूप से औद्योगिक मान्यता एवं वाणिज्यिक समर्थन मिलेगा ऐसा मेरा विश्वास है ।
हिन्दी फ़िल्मों से हम प्यार करते हैं वे कैसी भी हों, हम देखते हैं, तारीफ़ करते हैं, आलोचना करते हैं लेकिन देखना नहीं छोडते, इसी को तो प्यार कहते हैं । हमारी हिन्दी फ़िल्मों में मौत को जितना "ग्लैमराईज" किया गया है उतना शायद और कहीं नहीं किया गया होगा । यदि हीरो को कैन्सर है, तो फ़िर क्या कहने, वह तो ऐसे मरेगा कि सबकी मरने की इच्छा होने लगे और यदि उसे गोली लगी है (वैसे ऐसा कम ही होता है, क्योंकि हीरो कम से कम चार-छः गोलियाँ तो पिपरमेंट की गोली की तरह झेल जाता है, वो हाथ पर गोली रोक लेता है, पीठ या पैर में गोली लगने पर और तेज दौडने लगता है), खैर... यदि गोली खाकर मरना है तो वह अपनी माँ, महबूबा, दोस्त, जोकरनुमा कॉमेडियन, सदैव लेटलतीफ़ पुलिस आदि सबको एकत्रित करने के बाद ही मरता है । जितनी देर तक वो हिचकियाँ खा-खाकर अपने डॉयलॉग बोलता है और बाकी लोग मूर्खों की तरह उसका मुँह देखते रहते हैं, उतनी देर में तो उसे गौहाटी से मुम्बई के लीलावती तक पहुँचाया जा सकता है । हीरो गोली खाकर, कैन्सर से, कभी-कभार एक्सीडेंट में मरता तो है, लेकिन फ़िर उसकी जगह जुडवाँ-तिडवाँ भाई ले लेता है, यानी कैसे भी हो "फ़ुटेज" मैं ही खाऊँगा ! साला..कोई हीरो आज तक सीढी से गिरकर या प्लेग से नहीं मरा ।चलो किसी तरह हीरो मरा या उसका कोई लगुआ-भगुआ मरा (हवा में फ़डफ़डाता दीपक अब बुझा कि तब बुझा..बच्चा भी समझने लगा है कि दीपक बुझा है मतलब बुढ्ढा चटकने वाला है...) फ़िर बारी आती है "चिता" की और अंतिम संस्कार की । उज्जैन में रहते हुए इतने बरस हो गये, लोग-बाग दूर-दूर से यहाँ अंतिम संस्कार करवाने आते हैं, आज तक सैकडों चितायें देखी हैं, लेकिन फ़िल्मों जैसी चिता... ना.. ना.. कभी नहीं देखी, क्या "सेक्सी" चिता होती है । बिलकुल एक जैसी लकडियाँ, एक जैसी जमी हुई, खासी संख्या में और एकदम गोल-गोल, "वाह" करने और तड़ से जा लेटने का मन करता है... फ़िर हीरो एक बढिया सी मशाल से चिता जलाता है, और माँ-बहन-भाई-दोस्त या किसी और की कसम जरूर खाता है, और इतनी जोर से चीखकर कसम खाता है कि लगता है कहीं मुर्दा चिता से उठकर न भाग खडा हो...। यदि चिता हीरोईन की है, और वो भी सुहागन, फ़िर तो क्या कहने । चिता पर लेटी हीरोईन ऐसी लगती है मानो "स्टीम बाथ" लेने को लेटी हो और वह भी फ़ुल मेक-अप के साथ । हीरो उससे कितना भी लिपट-लिपट कर चिल्लाये, मजाल है कि विग का एक बाल भी इधर-उधर हो जाये, या "आई-ब्रो" बिगड़ जाये, चिता पूरी जलने तक मेक-अप वैसा का वैसा । शवयात्रा के बाद बारी आती है उठावने या शोकसभा की । हीरो-हीरोईन से लेकर दो सौ रुपये रोज वाले एक्स्ट्रा के कपडे भी एकदम झकाझक सफ़ेद..ऐसा लगता है कि ड्रेस-कोड बन गया हो कि यदि कोई रंगीन कपडे पहनकर आया तो उसे शवयात्रा में घुसने नहीं दिया जायेगा । तो साथियों आइये कसम खायें कि जब भी हमारी चिता जले ऐसी फ़िल्मी स्टाईल में जले, कि लोग देख-देखकर जलें । जोर से बोलो...हिन्दी फ़िल्मों का जयकारा...

Sunday, March 23, 2008

भज्जी

दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ आगामी घरेलू श्रंखला के लिए चल रहा कप्तान महेंद्र सिंह धोनी और स्पिनर हरभजन सिंह का फिटनेस टेस्ट खत्म हो गया है। दोनों को ही फिट घोषित कर दिया गया है।

बेंगलूरु में शुक्रवार को हुए इस फिटनेस टेस्ट में भज्जी को फिट घोषित कर दिया गया। भज्जी को फिट घोषित करने के करीब 40 मिनट बाद धोनी को भी फिट करार दे दिया गया।

दोनों ही खिलाड़ी दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ पहला टेस्ट खेलने के लिए फिट करार दे दिए गए हैं। दोनों टीमों के बीच पहला मैच आगामी 26 मार्च को खेला जाएगा।



युवाओं को आगे लाने और उनको इतनी तवज्जो देने का मतलब क्या यह है कि सौरव गांगुली और राहुल द्रविड़ के वनडे कैरियर को खत्म मान लिया जाए?

बीसीसीआई प्रमुख शरद पवार इस सवाल पर डांवाडोल दिखे और उन्होंने खुद को उन्होंने इस विवाद से दूर रखते हुए कहा कि वे चयन मामलों में दखलंदाजी नहीं करते लेकिन उन्होंने माना कि प्रदर्शन तो पैमाना रहा है।

पवार ने साफ किया कि ट्वेंटी 20 वर्ल्ड कप के लिए चुनी गई टीम में इन सीनियर खिलाड़ियों ने युवाओं को रास्ता देने के लिए खुद को दूर रखा। पवार ने बताया कि सचिन ने मुझसे मुलाकात की थी और कहा था कि उनकी पीढ़ी को ट्वेंटी 20 टीम में न चुने जाने की सलाह मैं चयनकर्ताओं को दूं। सचिन ने कहा था कि इस फॉर्मेट के लिए उनकी पीढ़ी फिट नहीं है इसलिए युवाओं को मौका दिया जाना चाहिए।

जब पवार से पूछा गया कि गांगुली और द्रविड़ वनडे टीम में लौटेंगे या नहीं तो उनका जवाब था मैं नहीं कह सकता कि वनडे इन खिलाड़ियों के हाथ से छूट चुका है, मैं चयन मामलों में कोई हस्तक्षेप नहीं करता हूं। यह पूरी तरह से चयनकर्ताओं का फैसला होता है। हालांकि पवार ने कहा कि यह ट्वेंटी 20 की तरह नहीं है जहां चयनकर्ता युवाओं को मौका देना चाहते थे।